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Class 10 NCERT Political Science Chapter 1 | BTC Book | लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी | क्लास 10वीं लोकतांत्रिक राजनीतिक | सभी प्रश्नों के उत्तर | SM Study Point

Class 10 NCERT Political Science Chapter 1  BTC Book  लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी  क्लास 10वीं लोकतांत्रिक राजनीतिक  सभी प्रश्नों के उत्तर  SM Study Point
SM Study Point

प्रश्न 1. "हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती ।" कैसे ?
उत्तर – यह शत-प्रतिशत सही है कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप ग्रहण नहीं कर सकती । हम देखते हैं कि कभी-कभी विभिन्न समुदायों के विचार विभिन्न तो होते हैं लेकिन उनका हित समान होता है । यह समान हित ही है कि सामुदायिक विभिन्नता के बावजूद उनमें एकता के भाव बने रहते हैं। यह रोजमर्रे की बात हो गई है कि विभिन्न सम्पन्न राज्यों में बिहारियों को अनेक तरह से सताया जाता है। यहाँ 'बिहारी' के रूप में लोग एक समुदाय के समझे जाते हैं लेकिन वास्तव में वे एक समुदाय के नहीं होकर अनेक समुदायों के होते हैं। यहाँ 'समुदायों' से तात्पर्य 'जातियों' (castes) से है । लेकिन बिहार से इतर किसी अन्य राज्य में सताए जाने के कारण 'बिहारी' होने के नाते एकता बन जाती है, जो समुदाय का रूप ले लेती है । .
अतः स्पष्ट है कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती । 
प्रश्न 2. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेता है ?
उत्तर – सामाजिक अंतर भारत में केवल जाति ही नहीं है। शिक्षा और आर्थिक व्यवस्था भी समाज में अन्तर पैदा करती हैं। एक जाति के होने के बावजूद यदि शिक्षा और अर्थशक्ति में भेद है तो यहाँ भी सामाजिक अंतर उत्पन्न होता है। लेकिन यह सामाजिक अंतर तब सामाजिक विभाजन का रूप ले लेता है जब एक-दूसरे से अपने को उच्च और दूसरे को नीच समझने लगते हैं। जब सामाजिक विभाजन स्पष्ट होने लगता है तब जाति गौण पड़ जाती है। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं, जैसी प्राचीन परम्परा रही है, शादी-विवाह अपनी जाति में ही होती है। लेकिन क्या शिक्षित और धनी व्यक्ति अपने पुत्र का विवाह अपनी ही जाति के अशिक्षित और गरीब की लड़की से करने के लिए राजी होगा ? नहीं, बिल्कुल नहीं। वह अपने बराबरी के परिवार की लड़की ही चाहेगा। यहीं पर सामाजिक अंतर सामाजिक विभाजन का रूप स्पष्ट होने लगता है। 
प्रश्न 3. “साममाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है। " भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें ।
उत्तर–सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणाम के फलस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में न केवल परिवर्तन होता है, बल्कि हो चुका है। भारत के संदर्भ में तो यह और भी अधिक दृष्टिगत होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद यदि दलित और पिछड़ों की उत्थान की बात नहीं सोची गई होती तो आज भारत विखंडित हो गया होता । दबेकुचले और आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को अगड़ों के समक्ष लाने के लिए संविधान में ही उल्लेख कर दिया गया है । संविधान तो उन्हें संरक्षण देता ही है, साथ ही राजनीति दल भी दलितों को आरक्षण देने की बात कहकर उन्हें अपना वोट बैंक बनाने का प्रयास करते हैं। अल्पसंख्यकों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। इनको लुभाने के लिए विभिन्न प्रलोभन दिए जाते हैं, लेकिन कुछ होता-जाता नहीं । जिसे विधायक या सांसद बनने का मौका मिल जाता है, उसकी पारिवारिक स्थिति तो आर्थिक रूप से मजबूत हो ही जाती है, समाज में उसे आदर भी प्राप्त हो जाता है, लेकिन उसी के समाज के अन्य लोग जहाँ-के-तहाँ ही रह जाते हैं। तात्पर्य की आरक्षण का लाभ व्यक्तिगत होकर. रह जाता है। पूरे समाज को उसका कोई लाभ नहीं मिलता । भारत में तो यह खुलेआम देखा जा सकता है । "
सामाजिक विभाजनों के कारण उनके सदस्यों को संतुष्ट रखने के प्रयास में राजनीति के परिणामस्वरूप लोकतंत्र के व्यवहार में भी परिवर्तन करना पड़ता है। इस स्थल पर राजनीतिक दलों की विवशता भी होती है।
प्रश्न 4. सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर (सामाजिक न्याय के संदर्भ में) का संक्षिप्त वर्णन करें । 
उत्तर – सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच का अर्थ है 1970 से आजतक का समय । 1970 के पहले तक 1967 की राजनीति पर सवर्ण जातियों का दबदबा था । विधान मंडल और संसद के लिए आरक्षित स्थानों पर ही टिकट जाति विशेष के अपने चहेते को ही देते थे। आरक्षण के तहत प्राप्त सुविधा प्राप्त नेताओं का रहन-सहन, . उनकी शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक स्थिति अपनी जाति के अन्य लोगों से काफी विकसित हो गयी और वे सवर्णों की श्रेणी में आ गए। इनका एक अलग समाज बन गया । 70 से 90 तक के दशकों के बीच इस स्थिति के बदलाव के लिए संघर्ष चलता रहा । 90 के दशक के बाद पिछड़ी जातियों का वर्चस्व कायम हो गया । दलितों में जागृति की अवधारणा राजनीतिज्ञों को प्रभावित करती रही। यही कारण था कि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने महादलितों की अवधारण को मजबूती दी और उनमें जागृति उत्पन्न की। दलितों के नाम पर सुविधा भोगी लोगों पर इसकी कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देखी गई। आज की स्थिति यह है कि पिछड़ी जातियों के साथ-साथ आज की राजनीति का पलड़ा दलितों और महादलितों के पक्ष में झूलता दिखाई पड़ रहा है। आज उत्तर प्रदेश की स्थिति यह है कि दलित मुख्यमंत्री को अगड़ी जातियों का सहयोग लेना पड़ रहा है, जबकि कभी उन्हें 'मनुवादी' कहकर अपमानित भी किया जाता था ।
प्रश्न 5. सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है ?
उत्तर - सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम तो सर्वप्रथम सरकार के गठन पर पड़ता है। विधायिक या संसद में विभिन्न समाजों का प्रतिनिधित्व रहता है। किसी राजनीतिक दल में भी विभिन्न समाजों के प्रतिनिधि रहते हैं। सरकार का गठन करते समय मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को यह ध्यान देना पड़ता है कि सराकर में सभी समाजों का प्रतिनिधित्व रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक विभाजनों की राजनीति का पहला परिणाम सरकार के रूप पर पड़ता है। दूसरा परिणाम यह पड़ता है कि विभिन्न समाजों में एकता बनी रहती है। उदाहरण के लिए भारत के समाजों को ले सकते हैं । भारत के विभिन्न राज्यों की वेश-भूषा, खान-पान, भाषा आदि में भिन्नता के बावजूद सभी अपने को भारतीय समझते हैं। यदि ऐसा नहीं रहता तो भारत खंड-खंड हो जाता ।
प्रश्न 6. सामाजिक विभाजनों को संभालने के संदर्भ में इनमें से कौन-सा बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू नहीं होता ?
(क) लोकतंत्र में राजनीति प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (Reflection) राजनीति पर भी पड़ती है।
(ख) लोकतंत्र में विभिन्न समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से अपनी शिकायतें जाहिर करना संभव है।
(ग) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों को हल (accomodate) करने का सबसे अच्छा तरीका है।
(घ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर (on the basis of social division) समाज को विखंडन ( disintegeration) की ओर ले जाता है।
उत्तर : (घ) ।
प्रश्न 7. निम्नलिखित तीन बयानों पर विचार करें :
(क) जहाँ सामाजिक अंतर एक-दूसरे से टकराते हैं (social differences overlap) वहाँ सामाजिक विभाजन होता है ।
(ख) यह संभव है कि एक व्यक्ति की कई पहचान ( multiple indentities) हो । 
(ग) सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों में ही सामाजिक विभाजन होते हैं ।

इन बयानों में से कौन-कौन से बयान सही हैं : 
(अ) क, ख और ग
(ब) क और ख 
(स) ख और ग 
(द) सिर्फ ग
उत्तर : (ब) |
प्रश्न 8. निम्नलिखित व्यक्तियों में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे ? 
(क) किंग मार्टिन लुथर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) ओलंपिक धावक टोमो स्मिथ एवं जॉन कॉर्लोस
(घ) जेड गुडी
उत्तर : (घ) ।
प्रश्न 9. निम्नलिखित का मिलान करें

समूह 'अ'
(क) पाकिस्तान
(ख) हिन्दुस्तान
(ग) इंगलैंड
समूह 'ब'
(अ) धर्मनिरपेक्ष
(ब) इस्लाम
(स) प्रोस्टेट
उत्तर : (क) → (ब), (ख) (अ), (ग) → (स)। 
प्रश्न 10. भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें ।
उत्तर – भावी समाज में लोकतंत्र की असीम जिम्मेवारी है। समाज के बीच विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। उन समुदायों के बीच वैमनस्यता उत्पन्न नहीं हो, इसकी जिम्मेदारी लोकतंत्र में बढ़ जाती है । बहुमत के आधार पर निर्वाचित सरकार को इस बात पर ध्यान देना है कि अल्पमत वालों के अधिकारों का हनन नहीं होने पावे । बहुमत का तात्पर्य केवल यह नहीं है कि समुदाय के किस वर्ग ने वोट दिया और किसने नहीं दिया । बहुमत से निर्वाचित सरकार का मतलब है कि यह समझा जाय कि देश के सभी लोगों ने मिलकर विधायकों या सांसदों का निर्वाचन किया है । अतः लोकतंत्रीय सरकार की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि विभिन्न समुदायों के साथ ऐसा व्यवहार हो कि परस्पर सभी में एकता बनी रहे ।
लोकतंत्रीय सरकारों का यह उद्देश्य भी है कि समाज में ऐसी आर्थिक व्यवस्था हो, कि सभी अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को आसानी से पूरा कर सकें । 
प्रश्न 11. “भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी हैं?" स्पष्ट करें । 
उत्तर- भारत में श्रम विभाजन के आधार पर जातिगत असमानताएँ जारी हैं, जैसा कि कुछ अन्य देशों में भी है। भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार लगभग वंशानुगत ही है। पेशा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वतः चला जाता है। पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति का रूप ले लेती है। यह व्यवस्था जब स्थायी हो जाती है तब वह श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कहलाने लगती है। वास्तव में इसे ही हम जाति के नाम से जानने लगते हैं। खासकर शादी-विवाह और अनेक अनिवार्य व्यवस्थाओं में यह स्पष्ट रूप से दिख जाता है । इस प्रकार भारत में सदियों से जातिगत असमनाताएँ जारी हैं।
प्रश्न 12. सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे क्यों नहीं तय हो सकते ? इसके दो कारण बतावें ।
उत्तर – यह सही है कि सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं होते । इसके दो कारण निम्नलिखित हैं :
(i) किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में किसी एक जाति के ही — मतदान नहीं होते। सम्भव है कि एक जाति के लोग अधिक हों, लेकिन उनके वोट कभी-कभी बँट भी जाते हैं। यह भी आवश्यक नहीं कि कोई अपनी जाति को ही वोट दे । वह किसी पार्टी के प्रति भी आस्थावान होता है ।
(ii) यह कहना भी सही नहीं होगा कि कोई दल किसी एक जाति के वोट के बल पर सत्तासीन हो सकता है। ऐसा उत्तर प्रदेश में देखा भी जा चुका है। मायावती को यह मानना पड़ा कि केवल दलितों के वोट पर सत्ता प्राप्त करना कठिन है। फलतः उन्हें दूसरी जातियों के हाथ पकड़ने पड़े ।
प्रश्न 13. विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण दें।
उत्तर - (i) साम्प्रदायिक सोच वाला व्यक्ति चाहता है कि उसी के सम्प्रदाय का उम्मीदवार विजयी हो। लेकिन अधिकतर उसे निराशा हाथ लगती है।
(ii) कभी-कभी साम्प्रदायकिता के आधार पर गोलबंदी होती है। इसमें धर्म गुरुओं का विशेष हाथ होता है । वे पवित्र प्रतीक का भी सहारा लेते हैं। लेकिन ऐसी राजनीति स्थायी नहीं होती।
(iii) साम्प्रदायिकता का भयावह रूप तब प्रकट होता है जब अपने सम्प्रदाय की गोलबन्दी के लिए दंगा करा दिया जाता है। बिना सोचे-समझे लोग अफवाहों के शिकार होने लगते हैं ।
प्रश्न 14. जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र करें, जिनमें भारत में स्त्रियों के साथ भेद-भाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं ।
उत्तर – जन्म के साथ ही लड़कियों के साथ भेदभाव आरम्भ हो जाता है। लड़की क. जन्म लेते ही परिवार में उदासी छा जाती है। उनके पालन-पोषण में भी लड़कों के मुताबिक कम ध्यान दिया जाता है। अब तो शिक्षित परिवारों में उनकी पढ़ाई पर ध्यान दिया जाने लगा है। पहले तो उन्हें पढ़ाना आवश्यक समझा ही नहीं जाता था । सोच यही रहती थी कि किसी प्रकार उसे ब्याह कर बिदा कर दिया जाय । लड़कियाँ पराई धन मानी जाती थीं । विवाह के बाद आज भी ससुराल में उन्हें दोयम दर्जे का पारिवारिक सदस्य माना जाता है। बचे-खुचे भोजन पर ही उन्हें गुजर करना पड़ता है। किसी भी दृष्टि से देखा जाता है तो पाया जाता है कि उनकी सिथति हर जगह कमजोर ही है । लेकिन इतना ध्यान रखना है कि पढ़े-लिखे लोगों तथा शहरों में स्थिति इसके विपरीत है। वहाँ लड़की और लड़का में कोई भेद नहीं समझा जाता ।
प्रश्न 15. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है ?
उत्तर – भारत की विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य है । स्वतंत्रता आन्दोलन में जिस प्रकार की भागीदारी महिलाओं की थी. आज विधायिकाओं में उनकी पूछ उतनी नहीं है। कोई राजनीतिक दल उनकी संख्या के हिसाब से उन्हें टिकट नहीं देते। विधायिकाओं में अपनी भागीदारी के लिए महिलाएँ वर्षों से संघर्ष कर रही हैं। लेकिन उन्हें दिलासा के अलावे कुछ नहीं मिलता । पुरुष प्रधान समाज उन्हें आरक्षण देना चाहता भी नहीं । जब महिला आरक्षण के लिए बिल आता है, तो कभी यह दल और कभी वह दल उसका विरोध करते लगते हैं। विरोध के नये मुद्दे तलाशे जाते हैं ।
प्रश्न 16. किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें, जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाता है ।
उत्तर – वे दो प्रावधान निम्नांकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है :
(i) भारत में राज्य का कोई धर्म नहीं है । न तो वह किसी धर्म का समर्थन कर. सकता है और न विरोध | (ii) धर्म के आधार पर किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेने से किसी को रोका नहीं जा सकता
प्रश्न 17. जब हम लैगिंक विभाजन की बात करते हैं तो अभिप्राय होता है 
(क) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अंतर
(ख) समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी गई असमान भूमिकाएँ
(ग) बालक और बलिकाओं की संख्या का अनुपात
(घ) लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को मतदान का अधिकार न मिलना 
उत्तर : (ख) ।
प्रश्न 18. भारत में औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है : 
(क) लोकसभा में 
(ख) विधान सभा में
(ग) मंत्री मंडल में
(घ) पंचायती राज व्यवस्थाओं में
उत्तर : (घ) ।
प्रश्न 19 साम्प्रदायिक राजनीति के अर्थ सम्बंधी निम्न कथनों पर गौर करें । साम्प्रदायिक राजनीति किस पर आधारित है ? 
(अ) एक धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है।
(ब) विभिन्न धर्मों के लोग समान नागरिक के रूप में खुशी-खुशी साथ रहते हैं।
(स) एक धर्म के अनुयायी एक समुदाय बनाते हैं। 
(द) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रखने में शासन की शक्ति का उपयोग नहीं किया जा सकता है ।
उत्तर : (ब) ।
प्रश्न 20. भारतीय संविधान के बारे में इनमें से कौन-सा कथन सही नहीं है ?
(क) यह धर्म के आधार पर भेद-भाव की मनाही करता है । 
(ख) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बनाता है । 
(ग) सभी लोगों को कोई भी धर्म मानने की आजादी देता है। 
(घ) किसी धार्मिक समुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है । 
उत्तर : (ग) |
प्रश्न 21. ................. पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में है : 
उत्तर – श्रम पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में ही है। (वर्ण व्यवस्था इसी का परिणाम थी जो जाति और उपजाति में प्रकट हो गयी ।)
प्रश्न 22. सूची I और सूची II में मेल कराएँ : 
सूची 'I' 
1. अधिकारों और अवसरों के मामले में स्त्री पुरुष की बराबरी मानने वाला व्यक्ति
2. धर्म को समुदाय का मुख्य आधार मानने वाला व्यक्ति
3. जाति को समुदाय का मुख्य आधार मानने वाला व्यक्ति
4. व्यक्तियों के बीच धार्मिक आस्था के आधार पर भेदभाव न करनेवाला व्यक्ति
सूची 'II'
(क) साम्प्रदायिक
(ख) नारीवादी
(ग) धर्म निरपेक्ष
(घ) जातिवादी
उत्तर : (1) → (ख), (2) (क), (3) → (घ), (4) →(ग)।

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद का सर्वोपरि कारक क्या है ? 
उत्तर – लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद का सर्वोपरि कारक सामाजिक विभाजन है ।
प्रश्न 2. किन आधारों पर सामाजिक बँटवारा होता है ?
उत्तर – निम्नलिखित आधारों पर सामाजिक बँटवारा होता है : -
(i) क्षेत्रीय भावना, (ii) धर्म, (iii) जाति, (iv) ऊँच-नीच की भावना ।
प्रश्न 3. ऊँच-नीच की भावना का मूल कारक क्या है ? 
उत्तर – ऊँच-नीच की भावना का मूल कारक तो जाति है, लेकिन आर्थिक सम्पन्नता तथा विपन्नता भी ऊँच-नीच की भावना को बल देती हैं। एक ही जाति के धनी और गरीब की रहन-सहन में काफी अंतर देखा जाता है ।
प्रश्न 4. सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में क्या अंतर है ? 
उत्तर- सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में यह अन्तर है कि सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं । दलितों और सवर्णों का अंतर, अमीरों और गरीबों का अंतर, वंचित और सुविधा प्राप्त लोगों का अंतर सामाजिक विभाजन का रूप ले लेता है । जब ये विभाजन स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होने लगते हैं तो इन्हें सामाजिक विभिन्नता कहते हैं ।
प्रश्न 5. सामाजिक विभाजन के कितने निर्धारक तत्व हैं ? वर्णन कीजिए । 
उत्तर- सामाजिक विभाजन के तीन निर्धारक तत्व हैं, जो निम्नलिखित हैं:
(i) राष्ट्रीय चेतना, (ii) क्षेत्रीय भावना तथा (iii) सरकार का रूप ।
(i) राष्ट्रीय चेतना– व्यक्ति को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए राष्ट्रीयता आवश्यकता होती है। कभी-कभी राष्ट्रीयता परिवर्तित होकर उपराष्ट्रीयता भी पनपने लगती है और यही सामाजिक विभाजन का कारण बनती है।
(ii) क्षेत्रीय भावना – सभी लोगों में कुछ-न-कुछ क्षेत्रीय भावना तो होती ही है लेकिन जब यह चरमावस्था पर पहुँच जाती है तो नुकसानदेह भी हो जाती है। उदाहरण के लिए मुंबई और ऐसे ही शहरों में हो रहे बिहारियों के साथ कुव्यवहार ।
(iii) सरकार का रूप–सामाजिक विभाजन सरकार के रूप और उसके व्यवहार के कारणों पर भी निर्भर करता है। समाज के लोगों की माँगों पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया हो रही है या सरकार के कार्यकलापों का समाज के लोगों पर क्या प्रतिक्रिया होती है— इन बातों पर भी समाज का विभाजन निर्भर करता है ।
प्रश्न 6. साम्प्रदायिकता की परिभाषा दीजिए |
उत्तर – जब लोग यह महसूस करने लगते हैं कि जाति ही समुदाय का निर्माण करती है और समुदाय राजनीति को प्रभावित करने लगता है तो इसी स्थिति को 'साम्प्रदायिकता' कहते हैं ।
प्रश्न 7. भारत में जाति या जातीयता का उद्भव कैसे हुआ? 
उत्तर – वैदिक काल में भारतीय समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था । यह केवल काम-धाम को व्यवस्थित ढंग से सम्पादन के लिए किया गया था। एक ही घर में चारों वर्ण के व्यक्ति रहते थे। साथ-साथ खाना-पीना होता था। परस्पर कोई वैमनस्यता नहीं रहती थी। इसे जन्मना वर्ण व्यवस्था कहते थे । कालक्रम से यह जन्मना वर्ण व्यवस्था कर्मना वर्ण व्यवस्था में बदल गई । अब तो व्यक्ति जो काम करता था उसके वंशज भी वही काम करने के लिए विवश हो गए । अब वर्ग को जाति कहा जाने लगा । अब जो जिस जाति का रहता था उसका शादी-विवाह उसी जाति में होने लगा। आगे चलकर जाति में भी उप जाति या उप जातियाँ होने लगीं। भारत में जाति या जातीयता . का उद्भव इसी प्रकार हुआ।

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