III. लघु उत्तरीय प्रश्न :
प्रश्न 1. वन्य समाज की राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालें ।
उत्तर – शुरू से ही वन्य समाज कबीलों में बँटा था। हर कबीला का एक मुखिया होता था। मुखिया को युद्ध में कुशल और शक्तिशाली होना अनिवार्य था ताकि वह अपने लोगों को सुरक्षा प्रदान कर सके। धीरे-धीरे मुखियाओं ने उनके लिए अनेक विशेषाधिकार प्राप्त कर लिए। इनकी अपनी शासन-प्रणाली थी तथा सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया था। अंग्रेजों के आने के बाद उनके प्रलोभन में पड़कर अनेक मुखिया अंग्रेजों के हित में अपने ही समाज का शोषण करने लगे ।
प्रश्न 2. वन्य समाज का सामाजिक जीवन कैसा था ?
उत्तर – सामान्यतः आदिवासी सीधे-सादे और सरल तथा ईमानदार होते थे । अपने सामाजिक जीवन में कोई बाहरी हस्तक्षेप इन्हें स्वीकार नहीं था । क्रमशः आर्थिक लाभ के लिए इन्होंने कबीला के मुखिया को जमींदार मान लिया । ऐसा अंग्रेजों की हस्तक्षेप नीति के कारण हुआ। अब मुखियाओं के नेतृत्व में ही ईसाई मिशनरियों की घुसपैठ बढ़ गई । इनकी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी। अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए, आदिवासियों के जो जंगलों से घनिष्ट रिश्ते थे, धीरे-धीरे तोड़ना शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने मुखियाओं को अपनी ओर करके ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि अब छोटे-मोटे शिकार और जलावन के भी लाले पड़ने लगे। फलतः इन्हें शहरों में नौकरी ढूँढने जाना पड़ गया ।
प्रश्न 3. अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज का आर्थिक जीवन कैसा था ?
उत्तर – वन्य समाज का आर्थिक जीवन का आधार कृषि था । ये झूम खेती में पारगंत थे | झूम खेतीं को घुमंतू खेती भी कहा गया है। खेती करते-करते जब ये देखते थे कि जमीन कम उपजाऊ हो गई तो ये अन्य स्थान पर चले जाते थे और वहीं पर जंगल को जलाकर खेती शुरू कर देते थे । कृषि के अलावे बाँस, मसाले, विभिन्न रेशे, रबर, लाह आदि का व्यापार करते थे। रेशों में तसर प्रमुख था, जो आज भी है । जब अंग्रेजों को रेल की पटरियों के लिए स्लीपर, डिब्बों के लिए लकड़ी की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने निर्दयी की तरह पेड़ों को काटना आरम्भ कर दिया। हालाँकि बाद में प्रतिबंध लगा, लेकिन इस प्रतिबंध से आदिवासियों को ही नुकसान हुआ। झूम खेती पर रोक लगाई गई । शिकार पर भी प्रतिबंध लग गया।
प्रश्न 4. अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों ने वन्य समाज को कैसे प्रभावित किया ?
उत्तर- ऐसे तो आदिवासी किसी भी बाहरी हस्तक्षेप के विरोधी थे, लेकिन ईसाई मिशनरियों ने सेवा का नाटक रचा और शिक्षा तथा स्वास्थ्य कार्यों के सहारे इन्होंने ईसाइयों में पैठ बना ली । वे गरीबों को अन्न भी देते थे। धीरे-धीरे आदिवासियों के कई नेता ईसाई बन गए और उन्होंने अन्य को भी ईसाई बनने के लिए प्रेरित किया । शिक्षा, साफसफाई तथा स्वास्थ्य सेवाओं द्वारा ईसाइयों ने कुछ अच्छे काम भी किए । लेकिन हर काम के पीछे उनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार था। आगे चलकर मिशनरियों का विरोध भी हुआ, लेकिन तबतक ये बहुत आगे बढ़ चुके थे ।
प्रश्न 5. भारतीय वन अधिनियम का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर – 'भारतीय वन अधिनियम 1865 में पारित हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों को वनों के लाभ से वंचित करना था। अब आदिवासी वनों से लकड़ी नहीं प्राप्त कर सकते थे। इस अधिनियम से आदिवासियों का आर्थिक जीवन और सामाजिक जीवन दोनों प्रभावित हुए । वास्तव में अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य जंगल क्षेत्र पर अधिकार उमाना था । अपने लिए तो वे जंगलों के वृक्ष काटते ही थे। अब वे वहाँ से राजस्व वसूलना शुरू कर दिया। जमींदार राजस्व वसूलते थे और आदिवासियों का अन्य तरीकों से भी शोषण करते थे। महाजन और साहूकार भी इनके साथ कम मनमानी नहीं करते थे ।
प्रश्न 6. चेरो विद्रोह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – चेरो कबीला के आदिवासी पलामू में रहते थे। अंठारवहीं शताब्दी के लगभग अंत में वहाँ पर चूड़ामन राय का शासन था । वह अंग्रेजों से मिला हुआ था और खुलकर आदिवासियों का शोषण करता था। असह्य हो जाने पर चेरो लोगों ने सन् 1800 ई. में राजा के विरुद्ध खुला विद्रोह शुरू कर दिया। राजा इस विद्रोह से जब नहीं निबट सका तो उसने अंग्रेजों के आगे त्राहिमाम का संदेश भेजा। राजा की मदद करने कर्नल जोन्स की अगुआई में अंग्रेजों की सेना पहुँच गई और चेरो आन्दोलन को दबा दिया। चेरो कबीला का नेता भूषण सिंह था । उसे गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी पर लटका दिया गया।
प्रश्न 7. 'तमार विद्रोह' क्या था ?
उत्तर – ‘उराँव' जनजाति के आदिवासी छोटानागपुर के तमार क्षेत्र में फैले हुए ये लोग जमींदारों के शोषण से तंग आ गए थे। इसका परिणाम हुआ कि इन्होंने शासन के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह 'तमार विद्रोह' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। विद्रोह सन् 1789 में शुरू हुआ और सन् 1794 तक चलता रहा। इन्होंने जमींदार के नाक में दम कर दिया । परिणामतः अंग्रेजों ने निर्ममता का सहारा लिया और क्रूरतापूर्ण ढंग से इन्हें दबाने का प्रयास किया । विद्रोह दब तो गया, लेकिन पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ। आगे चलकर उराँव आदिवासियों ने मुंडा और संथाल आदिवासियों से मिलकर विद्रोह किया और बहुत हद तक अंग्रेजों को झुका कर छोड़ा।
प्रश्न 8. 'चुआर विद्रोह' के विषय में लिखें ।
उत्तर – 'चुआर' जनजाति के आदिवासी तत्कालीन बंगाल प्राप्त के पश्चिमी भाग मिदनापुर, बांकुड़ा, मानभूम आदि क्षेत्रों में फैले हुए थे । अंग्रेजों द्वारा इन पर लाग लगान से ये क्षुब्ध थे। जमींदार इनके साथ मनमानी करते थे । अतः इन्होंने मिदनापुर क्षेत्र स्थित करणगढ़ की रानी सिरोमणी के नेतृत्व में विद्रोह का बिगुल फूँक दिया। यह विद्रोह एक लम्बे समय तक चलता रहा। 'चुआर' लोग तो भारी संख्या में मारे ही गए, अंग्रेजों को भी कम क्षति नहीं उठानी पड़ी। सन् 1778 तक संघर्ष चरमोत्कर्ष पर था । लेकिन 6 अप्रैल, 1799 को अंग्रेजों ने रानी सिरोमणी को धोखे से गिरफ्तार कर लिया और उन्हें कलकत्ता जेल में भेज दिया। फिर भी 'चुआर' शांत नहीं हुए । ये भूमिज जनजाति के साथ ‘गंगा नारायण' के विद्रोह में शरीक हो गए ।
प्रश्न 9. उड़ीसा की जनजाति के लिए 'चक्रबिसोई' ने क्या किए ?
उत्तर– चक्रबिसोई का जन्म घुमसार क्षेत्र के तारा बाड़ी नामक गाँव में हुआ था । वह अपने समय का एक बहादुर लड़ाका था । उड़ीसा के कंध जनजातियों के विद्रोह का भी काफी महत्व है। कंध आदिवासी पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे और तत्कालीन बंगाल से लेकर मद्रास प्रांत तक फैले हुए थे। लेकिन इनका मुख्य जमावड़ा उड़ीसा में ही था । इन लोगों में नरबलि प्रथा प्रचलित थी । अंग्रेज इस प्रथा को रोकना चाहते थे । 1837 में अंग्रेजों ने जब इस कुप्रथा को रोकना चाहा तो इन्होंने विद्रोह कर दिया। चक्रबिसोई ने अंग्रेजों का विरोध किया। उसका मानना था कि अंग्रेज आदिवासियों के रीति-रिवाज में दखलंदाजी कर रहे हैं । बिसोई आजीवन अंग्रेजों से लोहा लेता रहा। कंध आदिवासियों ने 1857 की प्रथम क्रांति में भी खुलकर भाग लिया था ।
प्रश्न 10. आदिवासियों के क्षेत्रवादी आंदोलन का क्या परिणाम हुआ ?
उत्तर – आदिवासियों के आन्दोलनों को रोकने के लिए अंग्रेजों को 1935 में कदम उठाया । तत्कालीन विधान सभा ने जनजातियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की तथा इन्हें कुछ आरक्षण दिया गया । स्वतंत्र भारत के संविधान में इन्हें कमजोर वर्ग मान लिया गया। सभी तरह की सुविधाओं में इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई । 1952 में नई नीति बनी । औपनिवेशिक शासन के अन्त के बावजूद ये शांत नहीं हुए । क्षेत्रवादी आंदोलन जारी ही रहा । 1 नवम्बर, 2000 ई. को मध्य प्रदेश से आदिवासी बहुल क्षेत्र को छाँटकर पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनाया गया । इस प्रकार 15 नवम्बर, 2000 को ही बिहार से अलग कर एक झारखंड राज्य बना ।
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